ग्रहदशा
ग्रहदशा : ग्रहों का विशेष फल देने का समय तथा अवधि भी निश्चित है। चंद्रनक्षेत्र का व्यतीत तथा संपूर्ण भोग्यकाल ज्ञात होने से ग्रहदशा ज्ञात हो जाती है। ग्रह अपने शुभाशुभ प्रभाव विशेष रूप से अपनी दशा में ही डालते हैं। किसी ग्रह की दशा में अन्य ग्रह भी अपना प्रभाव दिखलाते हैं। इसे उन ग्रहों की अंतर्दशा कहते हैं। इसी प्रकार ग्रहों की अंतर, प्रत्यंतर दशाएँ भी होती है। ग्रहों की पारस्परिक स्थिति से एक योग बन जाता है जिसका विशेष फल होता है। वह फल किस समय प्राप्त होगा, इसका निर्णय ग्रहों की दशा से ही किया जा सकता है। भारतीय प्रणाली में विंशोत्तरी महादशा का मुख्यतया प्रयोग होता है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य की आयु 120 वर्ष की मानकर ग्रहों का प्रभाव बताया जाता है।
- (1) व्यक्तियों तथा वस्तुओं के जीवन संबंधी ज्योतिष
- (2) प्रश्न ज्योतिष,
- (3) राष्ट्र तथा विश्व संबंधी ज्योतिष,
- (4) वायुमंडल संबंधी ज्योतिष,
- (5) आयुर्वेद ज्योतिष तथा
- (6) ज्योतिषदर्शन।
- भारतीय ज्योतिष में केवलजातक तथा संहितास दो शाखाएँ ही मुख्य हैं।
पाश्चात्य ज्योतिष की (1), (2) तथा (3) शाखाओं का जातक में तथा शेष तीन का संहिता ज्योतिष में अंतर्भाव हो जाता
है।
- ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कंध होते है।
- प्रथम स्कंध "सिद्धान्त"-जिसमें त्रुटि से
लेकर प्रलय काल तक की गणना, सौर, सावन,
नाक्षत्रादि, मासादि, काल मानव का प्रभेद,
ग्रह संचार का विस्तार तथा
गणित क्रिया की उपपति आदि द्वारा ग्रहों, नक्षत्रों, पृथ्वी की स्थिति का वर्णन किया गया है। इस स्कंद के प्रमुख
ग्रंथ ग्रह लाघव, मकरन्द, ज्योर्तिगणित, सूर्य सिद्धान्तादि प्रसिद्ध है।
- द्वितीय स्कंध "संहिता"-इस स्कन्द में गणित
को छोड़कर अंतरिक्ष, ग्रह, नक्षत्र,
ब्रह्माण्ड आदि की गति,
स्थिति एंव ततत् लोकों में
रहने वाले प्राणियों की क्रिया विशष द्वारा समस्त लोकों का समष्टिगत फलों का वर्णन
है। उसे संहिता कहते है। वाराह मिहिर की वृहत् संहिता, भद्र बाहु संहिता इस स्कन्द की
प्रसिद्ध ग्रंथ है।
- तृतीय स्कंध "होरा"-होरा इस स्कन्द में जातक,
जातिक, मुहूर्त प्रश्नादि का विचार कर
व्यष्टि परक या व्यक्तिगत फलादेश का वर्णन है। इस स्कन्द के प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत्
जातक, वृहत्
पाराशर होरशास्त्र, सारावली, जातक पारिजात, फलदीपिका, उतरकालामृत, लघुपाराशरी, जैमिनी सूत्र और प्रश्नमार्गादि प्रमुख ग्रंथ है।
- दैवज्ञ किसे कहते हैं-ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता को "दैवज्ञ" के
नाम से भी जाना जाता है। दैवज्ञ दो शब्दों से मिलकर बना है। दैव $ अज्ञ। दैव का अर्थ होता है। भाग्य और अज्ञ का अर्थ होता है जानने वाला।
अर्थात् भाग्य को जानने वाले को दैवज्ञ कहते है। वाराह मिहिर ने वाराह संहिता में
दैवज्ञ के निम्नलिखित गुण बताये है। जिसके अनुसार एक दैवज्ञ का आंतरिक व बाह्य
व्यक्तित्व सर्वर्था उदात, महनीय, दर्शनीय
व अनुकरणीय होना चाहिये। शांत, विद्या विनय से संपन्न, शास्त्र के प्रति समर्पित, परोपकारी, जितेन्द्रीय, वचन पालक, सत्यवादी, सत्चरित्र, आस्तिक व पर निन्दा विमुख होना चाहिये। वास्तविक दैवज्ञ को ज्योतिष के
तीनों स्कंधों का ज्ञान होना आवश्यक है।
- ज्योतिष की उत्पत्ति का काल निर्धारण आज तक कोई नही कर सका। क्योकि
ज्योतिष को वेदका नेत्र माना जाता है और वेद की प्राचीनता सर्व मान्य है। संसार का
सबसे प्रचीन ग्रंथ वेद माने जाते हैं और वेद के छः अंग है।
- 1. शिक्षा
- 2. कल्प
- 3. व्याकरण
- 4. निरूक्त
- 5. छनद
- 6. ज्योतिष
- मान्यताओं के अनुसार वेद ही सब विद्याओं का उद्गम है। अतः यह स्पष्ट
है कि ज्योतिष की उत्पत्ति उतनी ही प्रचीन है जितनी वेदों की।